इस्लाम का शुरुआती दौर बहुत कठिनाइयों से भरा था। मक्का के दुश्मनों ने मुसलमानों पर अत्याचार किए, उन्हें सताया, उनके व्यापार और जीवन को कठिन बना दिया। जब मुसलमान मदीना की ओर हिजरत कर गए और इस्लाम को वहाँ मजबूती मिलने लगी, तो मक्का के सरदारों को यह मंज़ूर नहीं हुआ।

इस्लाम और कुफ्र के बीच पहली ऐतिहासिक टक्कर जंग-ए-बदर के रूप में हुई। मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी (313) जबकि मक्का की फौज 1000 थी। फिर भी मुसलमानों ने अल्लाह की मदद और अपने मज़बूत ईमान से मक्का की फौज को पराजित कर दिया।
बदर की हार मक्का वालों के लिए गहरा सदमा था। उन्होंने बदला लेने की ठानी और एक बड़ी फौज तैयार की। यही अगली जंग – जंग-ए-उहुद – का कारण बनी।
मक्का की तैयारी
अबू सुफ़ियान के नेतृत्व में मक्का ने करीब 3000 सैनिकों की फौज तैयार की। इसमें 200 घुड़सवार, 700 ज़िरहधारी सैनिक और बहुत सारे ऊंट शामिल थे।
इस बार मक्का की औरतें भी साथ आईं, जिनका काम था मर्दों को युद्ध के लिए उकसाना और उनका जोश बनाए रखना। इनमें हिंद बिन्त उतबा भी थी, जो अबू सुफ़ियान की पत्नी थी। उसके पिता, भाई और चचा बदर में मारे गए थे। उसने कसम खाई थी कि वह हमज़ा से बदला लेगी।
मुसलमानों की रणनीति
जब रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को मक्का की फौज के आने की खबर मिली, तो आपने सहाबा से मशविरा किया। कुछ बुज़ुर्ग सहाबा की राय थी कि मदीना में रहकर मुकाबला किया जाए, लेकिन युवा सहाबा, विशेषकर जिन्होंने बदर में भाग नहीं लिया था, वे चाहते थे कि बाहर मैदान में युद्ध हो।
रसूलुल्लाह (स.अ.) ने उनकी इच्छा को देखते हुए निर्णय लिया कि जंग मदीना के बाहर उहुद पहाड़ के पास लड़ी जाएगी। आप 1000 सहाबा के साथ रवाना हुए। लेकिन रास्ते में मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह बिन उबई ने 300 लोगों को वापस बुला लिया। अब केवल 700 सच्चे मुसलमान ही साथ रह गए।
युद्ध से पहले की व्यवस्था
रसूलुल्लाह (स.अ.) ने उहुद पहाड़ी के सामने मैदान में सेना तैनात की, और एक छोटी पहाड़ी (जिसे जबल-ए-रुमात कहा जाता है) पर 50 तीरंदाज तैनात किए। उन्हें साफ आदेश दिया गया:
“अगर तुम देखो कि हम जीत रहे हैं या हार रहे हैं, तो भी अपनी जगह न छोड़ना, जब तक मैं हुक्म न दूं।”
यह बहुत ही महत्वपूर्ण रणनीति थी, ताकि पीछे से हमला न हो सके।
युद्ध की शुरुआत
जंग शनिवार के दिन शुरू हुआ। पहले चरण में मुसलमानों ने दुश्मन को पीछे हटा दिया। कई मक्की सरदार मारे गए। दुश्मन के खेमों में अफरातफरी मच गई और मुसलमानों को जीत का भरोसा होने लगा।
जैसे ही माल-ए-गनीमत मैदान में फैला, कुछ तीरंदाज़ अपने स्थान से उतर कर लूट जमा करने चले गए, यह सोचकर कि जंग खत्म हो गई है।
खालिद बिन वलीद का पलटवार
उस समय तक खालिद बिन वलीद इस्लाम नहीं लाए थे और मक्का की सेना में एक चालाक और तेज तर्रार सेनापति थे। उन्होंने पहाड़ी पर तीरंदाजों की जगह खाली देखी और तुरंत अपने घुड़सवारों के साथ पीछे से मुसलमानों पर हमला कर दिया।
यह हमला इतना अचानक और जोरदार था कि मुसलमानों की पंक्तियाँ टूट गईं और अफरा-तफरी फैल गई। जो मुसलमान माल-ए-गनीमत समेट रहे थे, वे बिखर गए।
रसूलुल्लाह (स.अ.) ज़ख़्मी हुए
इस हंगामे में कुछ दुश्मनों का लक्ष्य सिर्फ रसूलुल्लाह (स.अ.) को शहीद करना था। एक पत्थर आपकी ओर फेंका गया जिससे आपका एक दांत टूट गया, चेहरा ज़ख़्मी हो गया, और आप गिर पड़े।
कई सहाबा ने अपने जान की बाज़ी लगाकर आपकी हिफ़ाज़त की, जैसे:
- हज़रत अबू दुजाना
- हज़रत तल्हा बिन उबैदुल्लाह
- हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास
कुछ लोग यह अफवाह फैलाने लगे कि रसूलुल्लाह शहीद हो गए। इससे और ज्यादा घबराहट फैल गई।
हज़रत हमज़ा की शहादत
इस जंग में रसूलुल्लाह (स.अ.) के चचा हज़रत हमज़ा (रजि.) बहुत बहादुरी से लड़े, लेकिन एक गुलाम वहशी ने उन्हें भाले से मारकर शहीद कर दिया। वहशी को हिंद ने वादा किया था कि अगर वह हमज़ा को मार देगा तो वह उसे इनाम देगी।
जंग के बाद हिंद ने हज़रत हमज़ा का सीना चीरकर उनका कलेजा निकाला और चबाया। यह इस्लाम के खिलाफ उसकी गहरी नफरत का संकेत था।
विडियो देखें.. https://youtu.be/vMgfqjezumQ
जंग का परिणाम
जंग के अंत में मुसलमानों को भारी नुकसान हुआ। करीब 70 सहाबा शहीद हुए, जिनमें हज़रत हमज़ा, मूसाब बिन उमैर, अब्दुल्लाह बिन जहश और अनस बिन नजर जैसे नाम शामिल हैं।
मक्का की फौज मैदान छोड़कर वापस लौट गई क्योंकि मुसलमान फिर से संगठित होकर मुकाबले पर आ गए थे।
कुरआन में जंग-ए-उहुद
इस जंग का वर्णन कुरआन की सूरह आले-इमरान में विस्तार से किया गया। अल्लाह ने बताया कि हार की वजह तीरंदाजों की नाफरमानी, माल की मोहब्बत, और अनुशासन की कमी थी।
“और जब तुम पर एक मुसीबत आ पड़ी, जबकि तुम दुश्मनों को इससे दोगुना दुख पहुँचा चुके थे, तो तुम कहने लगे – यह कहां से आ गई? कह दो – यह तुम्हारे अपने ही कारण से है।”
(सूरह आले-इमरान, आयत 165)
जंग-ए-उहुद से हमें क्या सबक मिलता है
- रसूल और अल्लाह के हुक्म की पूरी फ़रमा बरदारी जरूरी है
- जंग में अनुशासन और सबर रखना जरूरी है
- दुनिया की मोहब्बत (जैसे माल-ए-गनीमत) बहुत बड़ा नुक़सान कर सकती है
- अफवाहें फैलाना और घबराहट नुकसानदायक होती है
- हार भी एक इम्तिहान है – उससे सबक लेकर आगे बढ़ना चाहिए
- मुनाफिकों पर भरोसा नहीं किया जा सकता
यह जंग इस बात का सबूत है कि मुसलमानों की जीत केवल संख्या या ताकत से नहीं होती, बल्कि अल्लाह पर यक़ीन, ईमानदारी, अनुशासन और फ़रमा बरदारी से होती है।
सैफुल्लाह कमर शिबली