परिचय: “फतह मक्का” यानी मक्का की विजय, इस्लाम के इतिहास का एक ऐतिहासिक और भावनात्मक मोड़ है। यह वह दिन था जब पैगंबर हज़रत मुहम्मद ﷺ और उनके साथियों ने उस शहर में अमन के साथ प्रवेश किया, जहाँ कभी उन्हें ज़ुल्म, तकलीफ़ और बहिष्कार का सामना करना पड़ा था। लेकिन बदले में बदला नहीं लिया गया। जो लोग दुश्मन थे, उन्हें माफ कर दिया गया। यह विजय तलवार की नहीं, बल्कि रहमत और इंसाफ की थी।
पृष्ठभूमि: मक्का से मदीना तक का सफ़र

इस्लाम के शुरुआती दौर में मक्का के क़ुरैश कबीले ने पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ और उनके अनुयायियों पर बहुत अत्याचार किए। यहाँ तक कि उन्हें अपना वतन छोड़कर मदीना हिजरत करनी पड़ी। लेकिन इसके बाद भी काफ़िरों ने चैन नहीं लेने दिया और कई बार मदीना पर हमला किया — बद्र, उहद, और खंदक जैसी लड़ाइयाँ इसी की गवाही हैं।
हालांकि मदीना में मुसलमानों को मज़बूती मिलती गई, और धीरे-धीरे इस्लाम पूरे अरेब में फैलने लगा।
हुदैबिया की सुलह और उसका उल्लंघन
628 ईस्वी में मक्का और मदीना के बीच एक समझौता हुआ जिसे “सुलह हुदैबिया” कहा जाता है। इसमें यह तय हुआ कि दस साल तक कोई युद्ध नहीं होगा। लेकिन दो साल बाद ही क़ुरैश के सहयोगी कबीले ने मुसलमानों के एक सहयोगी कबीले पर हमला किया और उन्हें शहीद कर दिया।
इसका मतलब था कि मक्का वालों ने सुलह का उल्लंघन कर दिया। अब मुसलमानों के पास युद्ध करने का धार्मिक और नैतिक अधिकार था।

पैगंबर ﷺ का शांतिपूर्ण रणनीति के साथ मक्का की ओर कूच
पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने 10,000 सहाबा (साथी) के साथ मक्का की ओर मार्च किया, लेकिन मक़सद सिर्फ़ बदला लेना नहीं था — मक़सद था लोगों को हक़ की राह दिखाना और मक्का को बिना खून-खराबे के फतह करना।
सभी को आदेश था कि कोई लड़ाई नहीं करेगा जब तक हमला न किया जाए।
अबू सुफ़यान की मुलाक़ात और इस्लाम में दाख़िला
अबू सुफ़यान, जो मक्का के बड़े सरदार थे और इस्लाम के कट्टर विरोधी थे, वह पैग़म्बर ﷺ से मिलने आए। उन्हें न सिर्फ़ माफ़ कर दिया गया, बल्कि ऐलान कर दिया गया:
“जो अबू सुफ़यान के घर में दाख़िल होगा, उसे अमान है।”
अबू सुफ़यान ने वहीँ इस्लाम क़ुबूल कर लिया।
मक्का की फतह – बिना लड़ाई के
मक्का में मुसलमानों का शांतिपूर्वक प्रवेश हुआ। किसी से बदला नहीं लिया गया, कोई जबरन इस्लाम नहीं थोपा गया। जिन लोगों ने सालों तक मुसलमानों को सताया, उनके लिए भी पैग़ंबर ﷺ ने कहा:
“जाओ, तुम सब आज़ाद हो।”
यही पैग़म्बर की रहमत है, यही इस्लाम का असली चेहरा है।
बुतों का तोड़ा जाना – तौहीद का एलान
काबा में 360 बुत रखे गए थे। पैग़म्बर ﷺ ने खुद अपने हाथ से बुतों को गिराया और कहा:
“हक़ आ गया और झूठ मिट गया।”
काबा को तौहीद यानी एक अल्लाह की इबादत के लिए पाक किया गया।
महिलाओं और गुलामों के हक़ का एलान
इस्लाम ने फतह मक्का के मौके पर औरतों, गुलामों और कमजोर वर्ग के लोगों को इज्ज़त और बराबरी का दर्जा दिया। पैग़म्बर ﷺ ने साफ़ कहा:
“किसी अरबी को अजमी पर, और किसी गोरे को काले पर कोई बड़ाई नहीं, सब बराबर हैं।”
फतह मक्का का आधुनिक सन्दर्भ
आज के दौर में जब लोग छोटी-छोटी बातों में एक-दूसरे से बदला लेते हैं, रिश्ते तोड़ देते हैं, फतह मक्का हमें सिखाता है कि ताक़त मिलने के बाद इंसान को सब से ज़्यादा रहम और इंसाफ़ दिखाना चाहिए।
अगर पैग़म्बर ﷺ चाहते तो मक्का वालों से बदला ले सकते थे, लेकिन उन्होंने माफ़ी दी — और इस माफ़ी ने लोगों के दिल जीत लिए।
नतीजा और असर
फतह मक्का के बाद पूरे अरेब में इस्लाम तेज़ी से फैला। वो लोग जो सालों तक दुश्मन थे, अब सच्चे मुसलमान बनकर इस्लाम की ख़िदमत करने लगे।
निष्कर्ष:
फतह मक्का सिर्फ़ एक शहर की विजय नहीं थी, यह दिलों की विजय थी। यह हमें बताती है कि इस्लाम तलवार से नहीं, बल्कि अच्छे अख़लाक और इंसाफ़ से फैला। यह दिन इंसानियत, इंसाफ़ और माफ़ी का सबसे बेहतरीन उदाहरण है।
Saifullah Qamar Shibli