इब्न रुश्द: मुसलमानों ने ठुकराया, यूरोप ने अपनाया

इब्न रुश्द (Ibn Rushd) अंदलुस के महान दार्शनिक और वैज्ञानिक थे जिन्हें मुसलमानों ने ठुकरा दिया लेकिन यूरोप ने अपनाया। उनकी किताबों ने यूरोप के नवजागरण और वैज्ञानिक क्रांति की बुनियाद रखी। यह पोस्ट बताती है कि मुसलमानों ने उनसे कैसा सुलूक किया और यूरोप ने उनसे क्या सीखा।


इस्लामिक इतिहास में अगर किसी महान वैज्ञानिक और दार्शनिक को सबसे ज्यादा तकलीफ़ और अपमान सहना पड़ा तो उनका नाम है इब्न रुश्द (Ibn Rushd)।

अंदलुस (आज का स्पेन) का यह महान आलिम अपने दौर में विज्ञान, दार्शनिक सोच और इल्म का सूरज था। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि मुसलमानों ने ही उन्हें ठुकरा दिया और काफ़िर, गुमराह और बेदीन करार दे दिया।

इब्न रुश्द कौन थे?

इब्न रुश्द का जन्म 1126 ई. में कॉर्डोबा (अंदलुस/स्पेन) में हुआ।

वह सिर्फ़ एक दार्शनिक ही नहीं बल्कि:

  • महान चिकित्सक (Doctor)
  • गणितज्ञ (Mathematician)
  • खगोलशास्त्री (Astronomer)
  • कानून के आलिम (Jurist)
  • और अरस्तू (Aristotle) के विचारों के सबसे बड़े व्याख्याकार (Commentator) थे।

उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने यूनानी दार्शनिक अरस्तू की कठिन किताबों और विचारों को आसान भाषा में लिखा। इस वजह से अरस्तू के दर्शन को समझना संभव हुआ और आगे चलकर यह यूरोप के नवजागरण (Renaissance) की बुनियाद बना।

मुसलमानों ने इब्न रुश्द के साथ क्या किया?

उस समय के धार्मिक समूह (मुल्ला और क़ाज़ी) इब्न रुश्द की आज़ाद सोच और उनके सवाल पूछने वाले अंदाज़ से नफ़रत करते थे।

  • उन्हें काफ़िर और बेदीन घोषित कर दिया गया।
  • उनकी लिखी हुई किताबों को सरेआम जला दिया गया।
  • एक मशहूर रिवायत के अनुसार, उन्हें जामे मस्जिद के खंभे से बाँध दिया गया और नमाज़ियों ने उनके चेहरे पर थूक दिया।
  • उनकी जिंदगी का आख़िरी हिस्सा अपमान, गुमनामी और अकेलेपन में गुज़रा।

यानी वह शख्सियत जिसने पूरे दौर को इल्म और तर्क (Logic) की रोशनी दी, उसी को उसके अपने मज़हबी हममसलक लोगों ने अपमानित कर दिया।

यूरोप ने इब्न रुश्द से क्या सीखा?

जिन्हें मुसलमानों ने नकार दिया, यूरोप ने उसी इब्न रुश्द को अपनाया।

  • उनकी किताबों का अनुवाद लैटिन और हिब्रू (Hebrew) भाषा में किया गया।
  • यूरोप की यूनिवर्सिटियों में सदियों तक उनकी किताबें पढ़ाई जाती रहीं।
  • ईसाई दार्शनिक थॉमस एक्विनास (Thomas Aquinas) पर इब्न रुश्द का गहरा असर पड़ा।
  • यूरोप में “Averroism” नाम से एक पूरा फ़लसफ़ी स्कूल (Philosophical School) बना, जिसकी नींव इब्न रुश्द की सोच पर रखी गई।
  • यूरोप की नवजागरण (Renaissance) और आगे चलकर आने वाले वैज्ञानिक क्रांति (Scientific Revolution) में इब्न रुश्द की विचारधारा ने गहरी भूमिका निभाई।

यानी, जहाँ मुसलमानों ने इब्न रुश्द को अपमानित करके भुला दिया, वहीं यूरोप ने उन्हें “उस्ताद और रहनुमा” मानकर ज्ञान का दीपक जलाया।

सबक हमारे लिए

इब्न रुश्द की ज़िन्दगी हमें एक गहरा सबक देती है:

  • इल्म (ज्ञान) का कोई मज़हब नहीं होता।
  • जो क़ौमें अपने आलिमों और साइन्टिस्टों की कद्र नहीं करतीं, वे पिछड़ जाती हैं।
  • अगर मुसलमानों ने इब्न रुश्द को अपनाया होता, तो शायद इल्मी तरक्क़ी (Scientific Progress) की राह यूरोप से पहले इस्लामी दुनिया में खुलती।
  • यूरोप ने उनसे सीखा और दुनिया को आगे बढ़ा दिया, लेकिन मुसलमान अपनी ही अंधी धार्मिक तंगदिली में पीछे रह गए।

आज जब हम पिछड़ेपन और पसमांदगी का शिकार हैं, तो हमें फिर से यह याद करने की ज़रूरत है कि असली ताक़त तलवारों और नारों में नहीं, बल्कि इल्म, तर्क और रिसर्च (Research) में है।

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