जब आप से कोई पूछे कि दुनिया की पहली नर्स कौन थी? तो शायद आप कहेंगे: फ्लोरेंस नाइटिंगेल।
लेकिन अगर यही सवाल आप से एक मुसलमान होकर पूछा जाए — और आप को ये ना पता हो कि इस्लाम में ही एक ऐसी ख़ातून थीं जिन्होंने 1400 साल पहले मेडिकल की दुनिया में क्रांति ला दी — तो इससे बड़ी शर्म की बात क्या हो सकती है?
हम बात कर रहे हैं — हज़रत रुफ़ैदा बिन्ते सअद रज़ियल्लाहु अन्हा की।
कौन थीं हज़रत रुफ़ैदा?
हज़रत रुफ़ैदा मदीना की एक अंसारी महिला थीं। इस्लाम से पहले ही उनके वालिद हकीम थे, और उन्होंने घर में रहकर इल्म हासिल किया। लेकिन वो सिर्फ़ जानने पर नहीं रुकीं — उन्होंने इलाज को मिशन बना लिया।
- पहली मुस्लिम महिला डॉक्टर — जिन्होंने सहाबा के ऑपरेशन किए।
- सर्जरी करती थीं — जैसे जख्म सिलना, हड्डियाँ जोड़ना, खून रोकना।
- पहली ट्रेनर — महिलाओं की टीम बनाई और उन्हें मेडिकल की ट्रेनिंग दी
- पहलाफील्ड हॉस्पिटल कायम की— जंग के मैदान के पास तंबू लगाकर इलाज करती थीं।
- पहली मेडिकल NGO — गरीबों, बेसहारा लोगों का इलाज करती थीं, कोई फीस नहीं।
उनकी सहेली महिलाएं भी उनके साथ थीं — सब मिलकर इस्लाम की पहली मेडिकल यूनिट बना चुकी थीं।

जंग-ए-ख़ंदक में रुफ़ैदा का कमाल
जब जंग-ए-ख़ंदक में हज़रत सअद बिन मुआज़ ज़ख्मी हुए, तो उन्हें रुफ़ैदा के तंबू में ही रखा गया। वहां इलाज हुआ, ऑपरेशन किया गया। यह सिर्फ़ मरहम पट्टी नहीं थी — ये मेडिकल साइंस का शुरुआती रूप था।
आज जिस तरह से आर्मी के साथ फील्ड हॉस्पिटल और मेडिकल स्टाफ जाता है — उस वक़्त ये काम रुफ़ैदा ने अकेले किया।
आज की मिसाल से तुलना कीजिए
आज अगर कोई महिला मेडिकल कोचिंग खोलती है, लैब चलाती है, या हॉस्पिटल में सीनियर सर्जन बनती है — तो समाज उसे सलाम करता है।
लेकिन ये मत भूलिए कि रुफ़ैदा ने ये सब तब किया जब दुनिया में औरतों को इंसान भी नहीं समझा जाता था।
- क्या आपने कभी सुना कि किसी मुस्लिम डॉक्टर लड़की ने कहा: “मैं रुफ़ैदा से इंस्पायर हूँ”?
- क्या कोई मुस्लिम हॉस्पिटल है जिसका नाम “रुफ़ैदा मेडिकल सेंटर” हो?
फ्लोरेंस नाइटिंगेल बनाम रुफ़ैदा बिन्ते सअद
फ्लोरेंस को आज दुनिया में हर कोई जानता है — स्कूल, कॉलेज, डॉक्यूमेंट्री, करंसी तक पर उसका नाम है।
लेकिन रुफ़ैदा को मुसलमान खुद नहीं जानते।
मुसलमानों की बेपरवाही
आज जब कोई आलिम, खतीब, या इस्लामी स्कॉलर हज़रत रुफ़ैदा का ज़िक्र करते है, तो बस एक लाइन में कहते है:
“रुफ़ैदा जख्मों की मरहम पट्टी करती थीं।”
क्या यही है हमारे हीरो का ज़िक्र?
क्या यही तरीका है अपने कारनामों को संजोने का?
हमने खुद अपने हीरों को भुला दिया — और फिर शिकायत करते हैं कि “दुनिया हमें नहीं पहचानती।”

आज ज़रूरत किस बात की है?
- रुफ़ैदा मेडिकल फेलोशिप शुरू की जाए।
- मुस्लिम लड़कियों को बताया जाए कि वो भी डॉक्टर, सर्जन, नर्स, ट्रेनर बन सकती हैं , वह सिर्फ घरेलू काम के लिए पैदा नहीं हुई, क्योंकि इस्लाम ने उन्हें ये रोल मॉडल दिया है।
- मुस्लिम मेडिकल कॉलेज में “रुफ़ैदा चेयर” बनाई जाए — जहां उनकी रिसर्च और योगदान पर काम हो।
- मस्जिदों, दर्सगाहों, और मदरसों में लड़कियों को रुफ़ैदा की कहानी सुनाई जाए।
आख़िरी बात — सोचिए और उठिए
अगर तुम अपने ही इतिहास को भूल जाओगे, तो तुम्हारा भविष्य कोई और लिखेगा।
रुफ़ैदा का नाम सिर्फ़ एक मेडिकल हीरोइन का नहीं — एक जागती आँखों वाले उम्मत की पहचान था।
आज जब हर तरफ़ मुस्लिम समाज परेशान है — हेल्थ के मामले में, इज्ज़त के मामले में, तरक्की के मामले में — तो हमें सिर्फ़ सवाल नहीं, काम करना होगा।
रुफ़ैदा हमारे लिए आईना हैं — और हम उस आईने से मुँह मोड़ बैठे है
सैफुल्लाह कमर शिबली